Somewhere between feeling jealous of a perfect brotherhood that isn't mine, and feeling guilty about that jealousy, I found myself in utter self-pity
Monday, 19 November 2018
Friday, 16 November 2018
Being Centred Amidst a Rightward Storm
This whole thing started with a thought that arose in my mind this
morning; “Amidst a rightward storm that is swaying away the world, it is so
difficult to be centred, if not on the left.”
As political as it may seem, this drift is something much bigger- a
drift in the world’s thought process, if I may say so- which has apparently
been driven by the political motives of global leaders (and supported greatly
by the people) if you so look carefully at our world and our society as it is
today.
To begin with our country, let us trail a couple of years back in time.
Although there have eternally been clashes between different castes,
communities and religions in the past too, I do not recall a time wherein our
religion was under the threat of being extinct or ruled over. For that matter,
every religion was coexisting, although not very harmoniously, but at least did
not have the sense of threat of extinction.
Suddenly, every other person, especially elder generations, are
panicking that their culture and/or religion is being attacked or is under
threat, and suddenly their deep disguised insecurity has surfaced back on top,
too loudly indeed. Every opposing mentality is deemed inappropriate. There is
suddenly no room for a difference of opinion, no scope for fruitful, healthy
debates, no ears for perspectives.
I clearly remember how it was at home, when I was in my teens. Watching
progressive talk shows and then debating about it was a normal thing at home,
and it always enriched us with perspectives. Now look at the talk shows that
you see. These moderators do not seem very neutral as they are supposed to be.
On top of it, they slam those whose thoughts do not confirm to their opinions.
I mean, where the hell is freedom of speech nowadays? If I post my
opinion anywhere, and if it does not seem to be agreeable, people start
immediately slut shaming me! No debating, no arguing! Directly tagging the
person as a slut/anti-national/terrorist/shameless, striping off their dignity
just because their thoughts oppose yours!
Forget debates, these days artistic freedom is extensively being
challenged and being crippled by the conservative mind-set. A couple of
Carnatic musicians who were bringing radical changes to the excessively caste-oriented
and religion-oriented set up in the Carnatic music industry in Tamil Nadu, have
faced so many hate speeches and backlashes, and appeal for being boycotted
across the state from performing, and all this for what? For trying to make the
art evolve beyond religion! (Read
a brief news here). To top it all, the artist who was supporting
them is also being targeted, and his concerts being called off! (Read
one of the news articles here).
Here, it is not the political parties, but the common citizens like you
and me that are completely opposing the idea of Carnatic music being more
inclusive towards other religions too. It is just so sad.
These are the same people who commended K.J.Yesudas for singing
religious songs on Hindu gods despite being a Christian and Bollywood stars
like Shah Rukh and Salman doing Ganapati Pooja despite being Muslims; but they
cannot bear with the converse of it to happen!
This whole behavior of this country belonging to one religion alone is
so toxic (thanks to the poison that was inflicted back in 1947) and has become interminable now. This is as though
we have lent our own land to them, and as though this country is not theirs; as
though one religion holds some sort of superiority under some invisible natural law!
This country is as much theirs, as is ours. I do not understand why this is so
hard to understand!
If these are not right-wing thoughts in everyday life, then what is? It feels as though our country’s mentality has
regressed back to the 80s and 90s! With increasing use of social media, this
battle between the conservatives and radicals is even more prominent. And with
most youngsters on the left and their parents on the right, the drift in
thought process is creating gaps everywhere, including inside families.
Most children end up being either pretentious or give in to the conventional,
reactionary, ultra-conservative, and often times unprogressive notions, just to
retain peace at home, for it is much more important to put family values above
one’s personal views. People like me end up drifting more towards the centre,
trying to balance between the left and the right. However, it is also extremely
tough to live and sustain such a duality in everyday life.
Now coming to the part which hurts me even more. If only you were
thinking that it is only in India, you are sadly mistaken. A friend of mine has
recently shifted to Australia, and tells me about how people there are coaxed
into conversion into Christianity and how non-Christians are eyed at
differently.
The world overall, if you observe, is increasingly being swayed away by
the same storm and the lives outside our country are no different, in a larger
picture. Capitalism-driven conservatism, protectionism, trade war, currency
war, sanctions, attacks on commoners, political coup attempts, corruption and
favoritism, anti-social elements, cyber-attacks, election scams, and this list
is unending and all pervasive across the world. only a handful of countries are
probably spared of these.
The very storm which is filling the people’s minds with this dust is the
notion of conservatism altogether (not only in political context) and indeed we are losing our radical, rational and potentially reforming mind-set
to this dust. And this isn’t a pleasant news, y’all!
Think of where we are heading now!
Thursday, 15 November 2018
मेरे माता पिता की तमिलियन हिन्दी
हिन्दी के प्रति अपना विचार या हिन्दी सीखने का अनुभव
साझा करने की बात आई तो मुझे तो यह ही याद आया कि मेरी मातृभाषा तमिल होने के
बावजूद, हिन्दी बोलने, पढ़ने या लिखने में मुझे और
मेरे बड़े भाई को तो कभी इतनी कठिनाई महसूस नहीं हुई। मगर मेरे माता पिता का यह सफर
इतना आसान नहीं रहा। हाँ मगर दिलचस्प ज़रूर था। मेरे माता पिता ऐसी ही अनेक दिलचस्प
किस्से हमे सुनाया करते थे, जिनमे से कुछ मैं आज आप के साथ बँटना चाहूंगी।
एक किस्सा- मुर्गा का मंदिर
मेरे पिता, श्री एस. वेंकटरामन, सन 1982 में जब तमिल नाडु के कुंबकोणम नामक एक प्रसिद्ध नगर से काम की तलाश में निकले, तो घूमते भटकते वे दिल्ली आ पहुंचे। हिन्दी बोलना तो दूर, वे उन लोगो में से एक थे जो एक समय पर तमिल नाडु के हिन्दी-विरोधी आंदोलनों का पक्ष लेते थे। शायद कभी सपने में भी सोचा न होगा उन्होने कि न केवल वे, परंतु उनकी आने वाली पीड़ी भी हिन्दी से इस तरह जुडने वाली है कि मानो हिन्दी जैसे उनकी अपनी मातृभाषा हो।
यह उन दिनों की बात है जब गूगल मैप्स नहीं थे, गूगल ट्रैंज्लेटर के विचार
ने भी जन्म नहीं लिया था और अधिकांश लोगो के पास मोबाइल फोन नहीं थे। एक दिन मेरे
पिता दिल्ली के एक प्रसिद्ध मंदिर के दर्शन करने निकल पड़े। हिन्दी बोलना जानते
नहीं, और जगह का नाम मालूम नहीं।
बस यह मालूम था उन्हे कि यह भगवान कार्तिकेय का एक सुंदर और विशाल मंदिर है, और दक्षिण भारत के लोगों ने
इस मंदिर की स्थापना की है। मेरे पिता जी ने ऑटो बुलाया और बोले ‘मुझे मुर्गा का मंदिर जाना
है’। ऑटो वाला चौक गया कि ये कौनसी
जगह है दिल्ली में जहां मुर्गे की पूजा होती है। ऑटो वाले ने फिरसे दोहराने को कहा, और मेरे पिता ने फिर से
बोला उन्हे कि ‘मुझे मुर्गा
का मंदिर जाना है’। ऑटो वाले
ने मौका देखा उन्हे उल्लू बनाने का, और ले चले 30 किलो मिटर दूर एक मुर्गा मार्केट नमक चिकन
बाज़ार में और कहा ‘ये रहा
मुर्गा का मंदिर’। मेरे
पिता हैरान होकर सोच में पड़ गए कि ‘मैंने ऐसा क्या बोल दिया इन्हे जो मुझ शाकाहारी को ऐसी
जगह ले आया ये आदमी’। बेचारे मेरे
पिता, वहाँ से दूसरा ऑटो पकड़ कर वापस
घर चले आए।
दरअसल हुआ यह कि तमिल में भगवान कार्तिकेय को मुरुगा (या
मुरूगन) बोलते हैं। हिन्दी न मालूम होने के कारण भगवान कार्तिकेय की जगह उन्हे मुर्गो
के दर्शन मिल गए। कई दिनों बाद उन्हे पता चला कि उस मंदिर का नाम है ‘मलई मंदिर’ जो दक्षिण दिल्ली के आर.के.पुरम
नमक जगह में स्थित है। आज भी जब हम उस मंदिर के दर्शन करने जाते हैं, मेरे पिता उनही यादों के
साथ यह कहानी फिरसे दोहराते हैं।
माँ के शिक्षक हम
अपने शहर चेन्नई के बाहर की दुनिया से बिलकुल अंजान, मेरी माँ, श्रीमति एस. गीता, दिल्ली आ पहुंची सन 1991
में, शादी के तुरंत बाद। अब
गृहणी होतीं तो आस पड़ोस के लोगों से घुलने मिलने का समय होता और इसी बहाने थोड़ी
हिन्दी भी सीख लेतीं। मगर वे ठहरीं कामकाजी महिला जो केवल अंग्रेजी से काम चला
लेती थीं। हिन्दी सीखना तो दूर उन्हे हिन्दी सुनने में भी कोई दिलचस्पी नहीं थी। आज
भी याद है वो दिन जब मैं और मेरा भाई आपस में हिन्दी में बात करने लगे थे, और हमारी माँ ने हमे डांटा कि
ये कौन सी एलियन भाषा में बात कर रहे हो, तमिल में बात करो घर में।
परंतु यह समय भी बदला। अब सरकारी दफ्तर में काम करने के
कारण उन्हे हिन्दी में कार्य करना सीखना पड़ा। तब हम भी स्कूल में हिन्दी सीखने लगे
थे। वो दिन भी बड़े ही दिलचस्प थे जब हम स्कूल से हिन्दी सीख कर आते और शाम को अपनी
माँ को घर में हिन्दी बोलना सिखाते थे। हमारी माँ हमेशा वस्तुयों के लिंगों को उलट
पुलट कर देती थी, और हम
उनकी इस नादानी पर हस्ते रहते। 27 साल हो गए पर आज भी हम उनकी इस विकलता को दूर
नहीं कर पाये हैं। माँ हमे स्कूल टोप्पर बनाने के लिए रोज़ हमे पढ़ाया करती थीं, और हम उन्हे उनके हिन्दी कि
परीक्षा पास कराने में मदद करते। अपनी माँ को कुछ सिखाने का मौका हर किसी को नहीं
मिलता। यह एक और वजह है कि हिन्दी मेरे दिल के इतने करीब है।
यह सच है कि सबको अपनी मातृभाषा सीखनी चाहिए। शायद इसी
कारण हमारे माता पिता ने हमे ऐसे स्कूल में पढ़ाया जहां हिन्दी के साथ साथ हम अपनी मातृभाषा
में भी कार्य करने के लिए सक्षम बनें। इतना ही नहीं, हमारे घर में एक नियम है कि घर के अंदर कदम रखते ही कोई
हिन्दी में बात नहीं करेगा, सारी बातें केवल तमिल में होंगी। कई बार जब गलती से
हिन्दी में हम कुछ बात कह भी देते थे तो उस बात का कोई उत्तर हमे नहीं मिलता था।
और शायद इनहि कुछ उसूलों और नियमों के कारण आज हम दोनों भाषाएँ बोल, पढ़ और लिख सकते हैं। पर कहते
हैं कि जिस भाषा में आप सोचते हो वही भाषा सही माइने में आपकी अपनी भाषा होती है।
तमिल भले ही मेरे लिए अत्यंत प्रिय है, पर मैं सोचती हिन्दी में हूँ। शायद इसलिए मेरा मानना है
कि तमिल मेरी मातृभाषा है और हिन्दी मेरे मन की भाषा है।
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