हिन्दी के प्रति अपना विचार या हिन्दी सीखने का अनुभव
साझा करने की बात आई तो मुझे तो यह ही याद आया कि मेरी मातृभाषा तमिल होने के
बावजूद, हिन्दी बोलने, पढ़ने या लिखने में मुझे और
मेरे बड़े भाई को तो कभी इतनी कठिनाई महसूस नहीं हुई। मगर मेरे माता पिता का यह सफर
इतना आसान नहीं रहा। हाँ मगर दिलचस्प ज़रूर था। मेरे माता पिता ऐसी ही अनेक दिलचस्प
किस्से हमे सुनाया करते थे, जिनमे से कुछ मैं आज आप के साथ बँटना चाहूंगी।
एक किस्सा- मुर्गा का मंदिर
मेरे पिता, श्री एस. वेंकटरामन, सन 1982 में जब तमिल नाडु के कुंबकोणम नामक एक प्रसिद्ध नगर से काम की तलाश में निकले, तो घूमते भटकते वे दिल्ली आ पहुंचे। हिन्दी बोलना तो दूर, वे उन लोगो में से एक थे जो एक समय पर तमिल नाडु के हिन्दी-विरोधी आंदोलनों का पक्ष लेते थे। शायद कभी सपने में भी सोचा न होगा उन्होने कि न केवल वे, परंतु उनकी आने वाली पीड़ी भी हिन्दी से इस तरह जुडने वाली है कि मानो हिन्दी जैसे उनकी अपनी मातृभाषा हो।
यह उन दिनों की बात है जब गूगल मैप्स नहीं थे, गूगल ट्रैंज्लेटर के विचार
ने भी जन्म नहीं लिया था और अधिकांश लोगो के पास मोबाइल फोन नहीं थे। एक दिन मेरे
पिता दिल्ली के एक प्रसिद्ध मंदिर के दर्शन करने निकल पड़े। हिन्दी बोलना जानते
नहीं, और जगह का नाम मालूम नहीं।
बस यह मालूम था उन्हे कि यह भगवान कार्तिकेय का एक सुंदर और विशाल मंदिर है, और दक्षिण भारत के लोगों ने
इस मंदिर की स्थापना की है। मेरे पिता जी ने ऑटो बुलाया और बोले ‘मुझे मुर्गा का मंदिर जाना
है’। ऑटो वाला चौक गया कि ये कौनसी
जगह है दिल्ली में जहां मुर्गे की पूजा होती है। ऑटो वाले ने फिरसे दोहराने को कहा, और मेरे पिता ने फिर से
बोला उन्हे कि ‘मुझे मुर्गा
का मंदिर जाना है’। ऑटो वाले
ने मौका देखा उन्हे उल्लू बनाने का, और ले चले 30 किलो मिटर दूर एक मुर्गा मार्केट नमक चिकन
बाज़ार में और कहा ‘ये रहा
मुर्गा का मंदिर’। मेरे
पिता हैरान होकर सोच में पड़ गए कि ‘मैंने ऐसा क्या बोल दिया इन्हे जो मुझ शाकाहारी को ऐसी
जगह ले आया ये आदमी’। बेचारे मेरे
पिता, वहाँ से दूसरा ऑटो पकड़ कर वापस
घर चले आए।
दरअसल हुआ यह कि तमिल में भगवान कार्तिकेय को मुरुगा (या
मुरूगन) बोलते हैं। हिन्दी न मालूम होने के कारण भगवान कार्तिकेय की जगह उन्हे मुर्गो
के दर्शन मिल गए। कई दिनों बाद उन्हे पता चला कि उस मंदिर का नाम है ‘मलई मंदिर’ जो दक्षिण दिल्ली के आर.के.पुरम
नमक जगह में स्थित है। आज भी जब हम उस मंदिर के दर्शन करने जाते हैं, मेरे पिता उनही यादों के
साथ यह कहानी फिरसे दोहराते हैं।
माँ के शिक्षक हम
अपने शहर चेन्नई के बाहर की दुनिया से बिलकुल अंजान, मेरी माँ, श्रीमति एस. गीता, दिल्ली आ पहुंची सन 1991
में, शादी के तुरंत बाद। अब
गृहणी होतीं तो आस पड़ोस के लोगों से घुलने मिलने का समय होता और इसी बहाने थोड़ी
हिन्दी भी सीख लेतीं। मगर वे ठहरीं कामकाजी महिला जो केवल अंग्रेजी से काम चला
लेती थीं। हिन्दी सीखना तो दूर उन्हे हिन्दी सुनने में भी कोई दिलचस्पी नहीं थी। आज
भी याद है वो दिन जब मैं और मेरा भाई आपस में हिन्दी में बात करने लगे थे, और हमारी माँ ने हमे डांटा कि
ये कौन सी एलियन भाषा में बात कर रहे हो, तमिल में बात करो घर में।
परंतु यह समय भी बदला। अब सरकारी दफ्तर में काम करने के
कारण उन्हे हिन्दी में कार्य करना सीखना पड़ा। तब हम भी स्कूल में हिन्दी सीखने लगे
थे। वो दिन भी बड़े ही दिलचस्प थे जब हम स्कूल से हिन्दी सीख कर आते और शाम को अपनी
माँ को घर में हिन्दी बोलना सिखाते थे। हमारी माँ हमेशा वस्तुयों के लिंगों को उलट
पुलट कर देती थी, और हम
उनकी इस नादानी पर हस्ते रहते। 27 साल हो गए पर आज भी हम उनकी इस विकलता को दूर
नहीं कर पाये हैं। माँ हमे स्कूल टोप्पर बनाने के लिए रोज़ हमे पढ़ाया करती थीं, और हम उन्हे उनके हिन्दी कि
परीक्षा पास कराने में मदद करते। अपनी माँ को कुछ सिखाने का मौका हर किसी को नहीं
मिलता। यह एक और वजह है कि हिन्दी मेरे दिल के इतने करीब है।
यह सच है कि सबको अपनी मातृभाषा सीखनी चाहिए। शायद इसी
कारण हमारे माता पिता ने हमे ऐसे स्कूल में पढ़ाया जहां हिन्दी के साथ साथ हम अपनी मातृभाषा
में भी कार्य करने के लिए सक्षम बनें। इतना ही नहीं, हमारे घर में एक नियम है कि घर के अंदर कदम रखते ही कोई
हिन्दी में बात नहीं करेगा, सारी बातें केवल तमिल में होंगी। कई बार जब गलती से
हिन्दी में हम कुछ बात कह भी देते थे तो उस बात का कोई उत्तर हमे नहीं मिलता था।
और शायद इनहि कुछ उसूलों और नियमों के कारण आज हम दोनों भाषाएँ बोल, पढ़ और लिख सकते हैं। पर कहते
हैं कि जिस भाषा में आप सोचते हो वही भाषा सही माइने में आपकी अपनी भाषा होती है।
तमिल भले ही मेरे लिए अत्यंत प्रिय है, पर मैं सोचती हिन्दी में हूँ। शायद इसलिए मेरा मानना है
कि तमिल मेरी मातृभाषा है और हिन्दी मेरे मन की भाषा है।
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